Friday, 1 July 2016

भारत के चार महान नीतिज्ञ…

भारत के चार महान नीतिज्ञ…

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम। दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥ -मनु (1/13) जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया। अंगिरा ऋषि : अंगिरा को वेदों के रचयिता चार ऋषियों में शामिल किया जाता है। माना जाता है कि अंगिरा से ही भृगु, अत्रि आदि ऋषियों ने ज्ञान प्राप्त किया। अंगिरा ने धर्म और राज्य व्यवस्था पर बहुत काम किया। ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं अंगिरा। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतांतर से श्रद्धा) थीं जिनसे इनके वंश का विस्तार हुआ। अग्निदेव ही बृहस्पति नाम से अंगिरा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं। इन्होंने वेदों की ऋचाओं के साथ ही अपने नाम से अंगिरा स्मृति की रचना की। अंगिरा-स्मृति : अंगिरा-स्मृति में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की शिक्षा व्याप्त है। महाराजा मनु : अब तक मनु तो सात हो चुके हैं। सातवें मनु वैवस्वत (श्राद्धदेव) ने जल प्रलय के बाद फिर से राज्य और धर्म व्यवस्था को स्थापित किया। उनकी परंपरा में ही मनु स्मृति का निर्माण हुआ।
वैवस्वत मनु के समय ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ। इनकी शासन व्यवस्था में देवों में पांच तरह के विभाजन थे- देव, दानव, यक्ष, किन्नर और गंधर्व। इनके दस पुत्र हुए थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। इसमें इक्ष्वाकु कुल का ही मुख्यतः विस्तार हुआ। इक्ष्वाकु कुल में कई महान प्रतापी राजा, ऋषि, अरिहंत और भगवान हुए हैं।
वैवस्वत सातवें मन्वंतर का स्वामी बनकर मनु पद पर आसीन हुए थे। इस मन्वंतर में ऊर्जस्वी नामक इन्द्र थे। अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि- ये सातों इस मन्वंतर के सप्तर्षि थे। 
 विदुर : महर्षि अंगिरा, राजा मनु के बाद विदुर ने ही राज्य और धर्म संबंधी अपने सुंदर विचारों से ख्याति प्राप्त की थी। अम्बिका और अम्बालिका को नियोग कराते देखकर उनकी एक दासी की भी इच्छा हुई। तब वेदव्यास ने उससे भी नियोग किया जिसके फलस्वरूप विदुर की उत्पत्ति हुई। विदुर धृतराष्ट्र के मंत्री किंतु न्यायप्रियता के कारण पांडवों के हितैषी थे। विदुर को उनके पूर्व जन्म का धर्मराज कहा जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों में इन्होंने वनवास ग्रहण कर लिया तथा वन में ही इनकी मृत्यु हुई।
विदुर नीति : विदुर नीति इनकी प्रसिद्ध रचना है। इसके अंतर्गत नीति सिद्धांतों का सुंदर वर्णन किया गया है। युद्ध के अनंतर विदुर पांडवों के भी मंत्री हुए। हिन्दी नीति काव्य पर विदुर के कथनों एवं सिद्धांतों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
मनु स्मृति : चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबंध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है, जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने संभव हैं। यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है।

चाणक्य : चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री और चणक के पुत्र चाणक्य को कौन नहीं जानता। वे कौटिल्य और विष्णुगुप्त नाम से भी विख्‍यात थे। माना जाता है कि वात्स्यायन नाम से उन्होंने ही ‘कामसूत्र’ लिखा था। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र, राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि महान ग्रंथ हैं। तक्षशिला में उनकी पढ़ाई हुई और पाटलीपुत्र में उनका निधन हुआ।
चाणक्य का जीवन और भारत का निर्माण- भाग एक
चाणक्य नीति : चाणक्य नीति में चाणक्य ने धर्म, राजनीति, जीवन और समाज से जुड़े हर पहलू पर अपने नीतिज्ञ विचार प्रस्तुत किए हैं। चाणक्य नीति दुनियाभर में प्रचलित और प्रसिद्ध है। चाणक्य का सबसे बड़ा गुरुमंत्र : ‘कभी भी अपने रहस्यों को किसी के साथ साझा मत करो, यह प्रवृत्ति तुम्हें बर्बाद कर देगी।’

 

कृष्ण की द्वारिका को किसने नष्ट किया था

कृष्ण की द्वारिका को किसने नष्ट किया था

मथुरा से निकलकर भगवान कृष्ण ने द्वारिका क्षेत्र में ही पहले से स्थापित खंडहर हो चुके नगर क्षेत्र में एक नए नगर की स्थापना की थी। कहना चाहिए कि भगवान कृष्ण ने अपने पूर्वजों की भूमि को फिर से रहने लायक बनाया था लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि द्वारिका नष्ट हो गई? किसने किया द्वारिका को नष्ट? क्या प्राकृतिक आपदा से नष्ट हो गई द्वारिका? क्या किसी आसमानी ताकत ने नष्ट कर दिया द्वारिका को या किसी समुद्री शक्ति ने उजाड़ दिया द्वारिका को। आखिर क्या हुआ कि नष्ट हो गई द्वारिका और फिर बाद में वह समुद्र में डूब गई। अंतिम पेज पर खुलेगा इसका रहस्य जो आज तक कोई नहीं जानता। इस सवाल की खोज कई वैज्ञानिकों ने की और उसके जवाब भी ढूंढे हैं। सैकड़ों फीट नीचे समुद्र में उन्हें ऐसे अवशेष मिले हैं जिसके चलते भारत का इतिहास बदल गया है। अब इतिहास को फिर से लिखे जाने की जरूरत बन गई है। आओ, इस सबके खुलासे के पहले जान लें इस क्षेत्र की प्राचीन पृष्ठभूमि को। पहले जान लें इस क्षेत्र का इतिहास… तब खुलेगा द्वारिका का एक ऐसा रहस्य, जो आप आज तक नहीं जान पाए हैं। ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु। इन्हें वेदों में पंचनंद कहा गया है। 7,200 ईसा पूर्व अर्थात आज से 9,200 वर्ष पूर्व ययाति के इन पांचों पुत्रों का संपूर्ण धरती पर राज था। पांचों पुत्रों ने अपने-अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रुहु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई। इन पांचों कुल के लोगों ने आपस में कई प्रसिद्ध लड़ाइयां लड़ी हैं जिसमें से एक दासराज्ञ का युद्ध और दूसरा महाभारत का युद्ध प्रसिद्ध है। पुराणों में उल्लेख है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गया था और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को राजपद प्राप्त करने का सौभाग्य न प्राप्त होगा। (हरिवंश पुराण, 1, 30, 29)। ययाति सबसे छोटे बेटे पुरु को बहुत अधिक चाहता था और उसी को उसने राज्य देने का विचार प्रकट किया, परंतु राजा के सभासदों ने ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए इस कार्य का विरोध किया। (महाभारत, 1, 85, 32) किसको कौन सा क्षेत्र मिला : ययाति ने दक्षिण-पूर्व दिशा में तुर्वसु को (पंजाब से उत्तरप्रदेश तक), पश्चिम में द्रुहु को, दक्षिण में यदु को (आज का सिन्ध-गुजरात प्रांत) और उत्तर में अनु को मांडलिक पद पर नियुक्त किया तथा पुरु को संपूर्ण भूमंडल के राज्य पर अभिषिक्त कर स्वयं वन को चले गए। यदु ने पुरु पक्ष का समर्थन किया और स्वयं मांडलिक पद से इंकार कर दिया। इस पर पुरु को राजा घोषित किया गया और वह प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक हुआ। उसके वंशज पौरव कहलाए। अन्य चारों भाइयों को जो प्रदेश दिए गए, उनका विवरण इस प्रकार है- यदु को चर्मरावती अथवा चर्मण्वती (चंबल), बेत्रवती (बेतवा) और शुक्तिमती (केन) का तटवर्ती प्रदेश मिला। तुर्वसु को प्रतिष्ठान के दक्षिण-पूर्व का भू-भाग मिला और द्रुहु को उत्तर-पश्चिम का। गंगा-यमुना दो-आब का उत्तरी भाग तथा उसके पूर्व का कुछ प्रदेश जिसकी सीमा अयोध्या राज्य से मिलती थी, अनु के हिस्से में आया। यदि हम यादवों के क्षेत्र की बात करें तो वह आज के पाकिस्तान स्थित सिन्ध प्रांत और भारत स्थित गुजरात का प्रांत है। इसके बीच का क्षेत्र यदु क्षेत्र कहलाता था। पहले राज्य का विभाजन नदी और वन क्षे‍त्र के आधार पर था। सरस्वती नदी पहले गुजरात के कच्छ के पास के समुद्र में विलीन होती थी। सरस्वती नदी के इस पार (अर्थात विदर्भ की ओर गोदावरी-नर्मदा तक) से लेकर उस पार सिन्धु नदी के किनारे तक का क्षेत्र यदुओं का था। सिन्धु के उस पार यदु के दूसरे भाइयों का क्षेत्र था।ओर बहुत ही लंबी दीवार थी जिसमें कई द्वार थे। वह दीवार आज भी समुद्र के तल में स्थित है। भारत के सबसे प्राचीन नगरों में से एक है द्वारिका। ये 7 नगर हैं- द्वारिका, मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांची और अयोध्या। द्वारिका को द्वारावती, कुशस्थली, आनर्तक, ओखा-मंडल, गोमती द्वारिका, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, वारिदुर्ग, उदधिमध्यस्थान भी कहा जाता है। गुजरात राज्य के पश्चिमी सिरे पर समुद्र के किनारे स्थित 4 धामों में से 1 धाम और 7 पवित्र पुरियों में से एक पुरी है द्वारिका। द्वारिका 2 हैं- गोमती द्वारिका, बेट द्वारिका। गोमती द्वारिका धाम है, बेट द्वारिका पुरी है। बेट द्वारिका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है। द्वारिका का प्राचीन नाम कुशस्थली है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था। यहां द्वारिकाधीश का प्रसिद्ध मंदिर होने के साथ ही अनेक मंदिर और सुंदर, मनोरम और रमणीय स्थान हैं। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने यहां के बहुत से प्राचीन मंदिर तोड़ दिए। यहां से समुद्र को निहारना अति सुखद है। कृष्ण क्यों गए थे द्वारिका : कृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण और यदुओं का नामोनिशान मिटा देने की ठान रखी थी। वह मथुरा और यादवों पर बारंबार आक्रमण करता था। उसके कई मलेच्छ और यवनी मित्र राजा थे। अंतत: यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया। विनता के पुत्र गरूड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण कुशस्थली आ गए। वर्तमान द्वारिका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान थी, कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को पुनः बसाया। कृष्ण अपने 18 नए कुल-बंधुओं के साथ द्वारिका आ गए। यहीं 36 वर्ष राज्य करने के बाद उनका देहावसान हुआ। द्वारिका के समुद्र में डूब जाने और यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे। द्वारिका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारिका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है।

 

हिन्दू धर्म की कहानी व् इतिहास

हिन्दू धर्म की कहानी व् इतिहास

हिन्दू धर्म दुनिया का प्राचीन धर्म है। इससे पहले लोग कबीलों का जीवन जीते थे और झूठे देवी और देवताओं की पूजा-करते थे और समाज में किसी भी प्रकार की कोई नैतिकता और व्यवस्था नहीं थी। लेकिन आर्यों ने दुनिया को बदल दिया और उन्होंने आज से 15 हजार वर्ष पूर्व धर्म को एक व्यवस्था दी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आधारित 4 आश्रमों का समाज बनाया, धरती को रहने का स्थान बनाया और साथ ही लोगों में एक नई सोच का विकास किया। उन्होंने दुनिया को ऐसा दर्शन दिया, जो विज्ञानसम्मत है और जो आज भी प्रासंगिक है। आओ जानते हैं हिन्दू धर्म के उत्थान, विकास और पतन की रोचक कहानी। हिन्दू धर्म के दो भाग हैं- वेद और पुराण। वेदों के भी दो भाग हैं- एक वह जो ऋग्वेद को मानते हैं और दूसरा वह जो अथर्ववेद को मानते थे। ऋग्वेद और यजुर्वेद से देवसंस्कृति का विकास हुआ तो सामवेद और अथर्ववेद से असुर संस्कृति का विकास हुआ। पुराणों ने दोनों ही संस्कृति के धर्म, नियम और इतिहास को सम्मिलित और संरक्षित रखने का प्रयास किया। इस तरह वैदिक और पौरा‍णिक 2 तरह के संप्रदाय बन गए। वेदों से 4 संप्रदायों की उत्पत्ति हुई:- 1. एकवादी, 2. द्वैतवादी, 3. अद्वैतवादी और 4. प्रकृतिवादी। हालांकि यह कोई संप्रदाय नहीं है, ये वैदिक दर्शन के ही मुख्य भाग हैं। इसे एक ईश्वर या ब्रह्मवादी भी कहते हैं। ब्रह्म ही सत्य है, अहं ब्रह्मास्मि, तत्वमसी ये 3 ब्रह्म वाक्य हैं। पुराणों से 4 संप्रदायों की उत्पत्ति हुई:- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त और 4 स्मार्त। वैष्णव जो विष्णु को परमेश्वर मानते हैं, शैव जो शिव को परमेश्वर मानते हैं, शाक्त जो देवी को परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं। स्मार्त बहुदेववादी भी होते हैं और एकेश्वरवादी भी। अब आप सोच रहे होंगे कि फिर ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और क्षुद्र समाज की उत्पत्ति कैसे हुई? 

आर्य कौन थे? आर्य भारत के हिमालय से हिन्दूकुश तक के क्षेत्र में रहने वाले लोग थे। यहीं से वे संपूर्ण जम्बूद्वीप पर फैल गए। क्यों? क्योंकि यह देव और असुरों की लड़ाई थी। देव और असुर कौन थे? ये आर्यों के ही दो वर्ग थे। उन्हीं में दैत्य, दानव, गंधर्व, यक्ष, किन्नर और नाग हुए। देव और असुरों में झगड़ा क्यों था? इसलिए कि देव उन नियमों को मानते थे, जो ऋग्वेद में थे और असुर नहीं मानते थे। पहले ऋग्वेद ही होता था फिर इससे यजुर्वेद बना। फिर सामवेद और ‍अंत में अथर्ववेद। वेद किसने लिखे?प्रारंभिक जातियां- सुर और असुर कौन थे? 


हिन्दू धर्म : आर्य शब्द का अर्थवेद ईश्वर की वाणी है। इस वाणी को सर्वप्रथम 4 ऋषियों ने सुना: 1. अग्नि, 2. वायु, 3. अंगिरा और 4. आदित्य। ये चारों कौन थे? क्रमश: ये सभी ब्रह्मा के कुल के थे। वेद ज्ञान की रक्षा की गायत्री, सविता, सनतकुमार, अश्विनी कुमार आदि देवी-देवताओं ने।

परंपरागत रूप से इस ज्ञान को स्वायम्भुव मनु ने अपने कुल के लोगों को सुनाया, फिर स्वरोचिष, फिर औत्तमी, फिर तामस मनु, फिर रैवत और फिर चाक्षुष मनु ने इस ज्ञान को अपने कुल और समाज के लोगों को सुनाया। बाद में इस ज्ञान को वैवश्वत मनु ने अपने पुत्रों को दिया।
भगवान कृष्ण के माध्यम से परमेश्वर कहते हैं:-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌॥- गीता
अर्थ : ‘भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किंतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वीलोक में लुप्तप्राय हो गया। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है।’
इतिहासकारों अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। तब वेद तीन भागों में बांटा गया जिसे वेदत्रयी कहा गया। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया। इस तरह चार वेद हो गया।
बाद में भगवान कृष्ण के काल में वेदों के ज्ञान को लिपिबद्ध किया गया और इस ज्ञान की कई शाखाओं का निर्माण हुआ। कृष्ण के चचेरे भाई और कौरवों के पिता वेद व्यास ने इस ज्ञान पर आधारित गुरु-शिष्य परंपरा की शुरुआत की और उन्होंने मूलत: 4 वेदों पर आधारित 4 पुराण लिखे।
प्राचीन काल में अग्नि, वायु, आदित्य और अगिंरा ऋषियों को वेदों का ज्ञान मिला जिसके बाद सात ऋषियों को ये ज्ञान मिला। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके पुत्र बादरायण और पौत्र व्यास और अन्य यथा जैमिनी, पातांजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था। निरूक्त, निघण्टु तथा मनुस्मृति को वेदों की व्याख्या मानते हैं। पुराण को वेदों की कथाओं की व्याख्या माना जाता है।

 

हिन्दू धर्म की पांच प्रमुख सतियां

हिन्दू धर्म की पांच प्रमुख सतियां 

स्त्री का पतिव्रता होना आज के युग में दुर्लभ हो चला है। एक ही पति या पत्नी धर्म का पालन करना हिन्दू धर्म के कर्तव्यों में शामिल है। यूं तो भारत में हजारों ऐसी महिलाएं हुई हैं जिनकी पतिव्रता पालन की मिसाल दी जाती है, लेकिन उनमें से भी कुछ ऐसी हैं जो इतिहास का अमिट हिस्सा बन चुकी हैं।
हिंदू इतिहास अनुसार इस संसार में पांच सती हुई है, जो क्रमश: इस प्रकार है 1.अनुसूया (ऋषि अत्रि की पत्नी), 2.द्रौपदी (पांडवों की पत्नी), 3.सुलक्षणा (रावण पुत्र मेघनाद की पत्नी), 4.सावित्री (जिन्होंने यमराज से अपना पति वापस ले लिया था), 5.मंदोदरी (रावण की पत्नी)।
1. अनुसूया : पतिव्रता देवियों में अनुसूया का स्थान सबसे ऊंचा है। वे अत्रि-ऋषि की पत्‍‌नी थीं। एक बार सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा में यह विवाद छिड़ा कि सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता कौन है? अंत में तय यही हुआ कि अत्रि पत्‍‌नी अनुसूया ही सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता हैं। इस बात की परीक्षा लेने के लिए अत्रि जब बहार गए थे तब त्रिदेव अनुसूया के आश्रम में ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे। तब अनुसूया ने अपने सतीत्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
2. द्रौपदी : द्रौपदी को कौन नहीं जानता। पांच पांडवों की पत्नी द्रौपदी को सती के साथ ही पांच कुवांरी कन्याओं में भी शामिल किया जाता है। द्रौपदी के पिता पांचाल नरेश राजा ध्रुपद थे। एक प्रतियोगिता के दौरान अर्जुन ने द्रौपदी को जीत लिया था।
पांडव द्रौपदी को साथ लेकर माता कुंती के पास पहुंचे और द्वार से ही अर्जुन ने पुकार कर अपनी माता से कहा, ‘माते! आज हम लोग आपके लिए एक अद्भुत भिक्षा लेकर आए हैं।’ इस पर कुंती ने भीतर से ही कहा, ‘पुत्रों! तुम लोग आपस में मिल-बांट उसका उपभोग कर लो।’ बाद में यह ज्ञात होने पर कि भिक्षा वधू के रूप में हैं, कुंती को अत्यन्त दुख हुआ किन्तु माता के वचनों को सत्य सिद्ध करने के लिए द्रौपदी ने पांचों पांडवों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया।
3.सुलक्षणा : रावण के पुत्र मेघनाद (इंद्रजीत) की पत्नी सुलक्षणा को पंच सती में शामिल किया गया है।
4.सावित्री : महाभारत अनुसार सावित्री राजर्षि अश्वपति की पुत्री थी। उनके पति का नाम सत्यवान था जो वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र थे। सावित्री के पति सत्यवान की असमय मृत्यु के बाद, सावित्री ने अपनी तपस्या के बल पर सत्यवान को पुनर्जीवित कर लिया था। इनके नाम से वट सावित्री नामक व्रत प्रचलित है जो महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए करती हैं। यह व्रत गृहस्थ जीवन के मुख्य आधार पति-पत्नी को दीर्घायु, पुत्र, सौभाग्य, धन समृद्धि से भरता है।
5. मंदोदरी : मंदोदरी रामायण के पात्र, लंकापति रावण की पत्नी थी। हेमा अप्सरा से उत्पन्न रावण की पटरानी जो मेघनाद की माता तथा मयासुर की कन्या थी। रावण को सदा अच्छी सलाह देती थी और कहा जाता है कि अपने पति के मनोरंजनार्थ इसी ने शतरंज के खेल का प्रारंभ किया था। इसकी गणना भी पंचकन्याओं में है। सिंघलदीप की राजकन्या और एक मातृका का भी नाम मंदोदरी था।

 

सान्दीपनि ऋषि , कृष्ण शंखासुर कथा

सान्दीपनि ऋषि , कृष्ण शंखासुर कथा

 सान्दीपनि, जिसका अर्थ ‘देवताओं के ऋषि’ है, भगवान कृष्ण के गुरु थे। सान्दीपनि उज्जैन के एक संत/ मुनि/ ऋषि थे। सान्दीपनि मुनि का आश्रम उज्जैन रेलवे स्टेशन से 5 किमी की दूरी पर स्थित है। आश्रम के समीप ‘अंकपट’ है। इसके प्रति लोगों में ऐसा विश्वास है कि यहाँ भगवान कृष्ण अपनी लेखन पट्टिका को साफ किया करते थे। इस आश्रम के पास एक पत्थर पर 1 से 100 तक गिनती लिखी है और ऐसा माना जाता है कि यह गिनती गुरु सान्दीपनि द्वारा लिखी गई थी। आश्रम के पास ही गोमती कुंड है, जिसके विषय में कहा जाता है कि पवित्र गोमती नदी का आह्वान  इस कुण्ड में श्री कृष्ण ने किया था, जिससे उनके वृद्ध गुरु को अन्य पवित्र स्थलों की यात्रा न करनी पड़े।

गुरु सान्दीपनि के आश्रम में रहते हुए दोनों भ्राता श्री कृष्ण और बलराम शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। इनके साथ ही सुदामा भी आश्रम में रहते हुए शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, जहाँ श्री कृष्ण और सुदामा मित्र बने थे। शिक्षा पूरी करने के पश्चात श्री कृष्ण और बलराम गुरु सान्दीपनि से गुरु दक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। ऋषि ने दक्षिणा के रूप में अपने पुत्र को माँग लिया, जो समुद्र के प्रभास क्षेत्र में विलुप्त हो गया था।
दोनों भाई प्रभास क्षेत्र में गये और उन्हें पता चला कि शंखासुर नामक राक्षस ऋषि पुत्र को ले गया है, जो समुद्र के नीचे पवित्र शंख में रहता है, जिसे ‘पाँचजन्य’ कहते हैं। दोनों भाइयों ने राक्षस का वध कर ‘पाँचजन्य’ में चारों ओर ऋषि पुत्र को खोजा। ऋषि पुत्र को उसमें न पाकर वे शंख लेकर यम के पास पहुँचे और उसे बजाने लगे।
यम ने दोनों भ्राताओं की पूजा करते हुए कहा,”हे सर्वव्यापी भगवान, अपनी लीला के कारण आप मानव स्वरूप में हैं। मैं आप दोनों के लिए क्या कर सकता हूँ?”
श्री कृष्ण ने कहा,’हे महान शासक, मेरे गुरु पुत्र को मुझे सौंप दीजिये, जो अपने कर्मों के कारण यहाँ लाया गया था।’
अपने गुरु को श्री कृष्ण ने उनका जीवित पुत्र सौंपा। श्री कृष्ण शंखासुर से पाँचजन्य ले आये। श्री
कृष्ण ने पाँचजन्य के साथ अर्जुन के देवदत्त शंख को बजाया, जो महाभारत के आरम्भ का प्रतीक था।

पंचजन सागर का एक दैत्य था, जिसे शंखासुर नाम से भी जाना जाता था। कृष्ण ने अपने गुरु संदीपन को गुरु दक्षिणा में गुरु पुत्र को वापस लाने का वचन दिया था, जो सागर में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हो गया था। पंचजन राक्षस की तलाश में श्री कृष्ण सागर में उतरे और उन्होंने उसका वध किया। गुरु संदीपन के आश्रम में कृष्ण-बलराम और सुदामा ने वेद-पुराण का अध्ययन प्राप्त किया था। कृष्ण को अद्वितीय मान गुरु दक्षिणा में संदीपन ने कृष्ण से मांगा कि उनका पुत्र प्रभास में जल में डूबकर मर गया था, वे उसे पुनजीर्वित कर दें। बलराम और कृष्ण प्रभास क्षेत्र के समुद्र तट पर गए और सागर जल से कहा कि वे गुरु के पुत्र को लौटा दें। सागर ने उत्तर दिया और बोला कि यहाँ पर कोई बालक नहीं है। सागर ने बताया कि पंचजन नामक सागर दैत्य, जो शंखासुर नाम से भी प्रसिद्ध है, उसने सम्भवतया बालक को चुरा लिया होगा। कृष्ण बालक की खोज में सागर में उतरे, दैत्य को तलाशा और उसे मार डाला। दैत्य का उदर चीरा तो कृष्ण को वहाँ पर कोई बालक नहीं मिला। शंखासुर के शरीर का शंख लेकर कृष्ण और बलराम यम के पास पहुँचे। यमलोक में शंख बजाने पर अनेक गण उत्पन्न हो गए। यमराज ने कृष्ण की माँग पर गुरु पुत्र उन्हें लौटा दिया। वे बालक के साथ गुरु संदीपन के पास गए और गुरु पुत्र के रूप में गुरु को गुरु दक्षिणा दी।[1]